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Home / Hindi / Health News / विश्व रचनात्मकता एवं नवाचार दिवस 2019 : इस एक बुरी आदत ने छीन ली है सभी की रचनात्‍मकता

विश्व रचनात्मकता एवं नवाचार दिवस 2019 : इस एक बुरी आदत ने छीन ली है सभी की रचनात्‍मकता

हाथ में मोबाइल आ जाने से बहुत सारी चीजें हथेली में सिमट आईं हैं। सोशल कनैक्टिविटी से लेकर घर-बाहर की जिम्‍मेदारियां भी आप इसके माध्‍यम से पूरी कर रहे हैं। पर क्‍या आप जानते हैं कि इस एक छोटी सी चीज ने दुनिया भर की रचनात्‍मकता पर ग्रहण लगा दिया है।

By: Yogita Yadav   | | Updated: April 20, 2019 5:50 pm
Tags: cellphone addiction  Cellphone hazard  mental stress  world creativity and innovation day  
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हाथ में मोबाइल आ जाने से बहुत सारी चीजें हथेली में सिमट आईं हैं। सोशल कनैक्टिविटी से लेकर घर-बाहर की जिम्‍मेदारियां भी आप इसके माध्‍यम से पूरी कर रहे हैं। पर क्‍या आप जानते हैं कि इस एक छोटी सी चीज ने दुनिया भर की रचनात्‍मकता पर ग्रहण लगा दिया है। ©Shutterstock.

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क्‍या आपको अपने पड़ोस में गए हुए बहुत दिन हो गए, क्‍या आपने बहुत दिनों से कोई मुहावरा नहीं सुना, क्‍या गीली मिट्टी में हाथ साने हुए बहुत दिन हुए या कि आपका बच्‍चा आप समूह खेलों में रूचि लेना छोड़ चुका है, तो यह सब इस एक चीज के कारण हो रहा है, जिसे हम सब सेलफोन या मोबाइल फोन कहते हैं। 21 अप्रैल विश्‍व रचनात्‍मकता एवं नवाचार दिवस पर हमें इस बात पर गंभीरता से विचार करना होगा कि आखिर कैसे मोबाइल हमारी और हमारे बच्‍चों की रचनात्‍मकता पर ग्रहण लगा रहा है। Also Read - लॉकडाउन के दौरान 65 प्रतिशत बच्चों को हुआ डिवाइस एडिक्शन, सर्वे में हुआ खुलासा

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सुबह से देर रात तक सब मोबाइल पर हैं

दिनचर्या से लेकर सामाजिक ताने-बाने तक अब जहां-जहां नज़र जाती है, वहां-वहां जीवन तकनीक के गहरे प्रभाव में डूबा दिखाई देता है। इस प्रभाव से न वृद्ध अछूते हैं, न बच्‍चे। माता-पिता के दोस्‍त मोबाइल पर कनैक्‍ट हो रहे हैं तो बच्‍चों के होमवर्क भी मोबाइल पर ही आ रहे हैं। अब हर उम्र, हर मौसम की तरह बचपन भी बित्ता भर स्क्रीन में गुम है। बेशक इस गुम होने में सकारात्मक संभावनाएं भी हैं, लेकिन तभी तक जब कि वह जीवन की असल रचनात्‍मकता पर ग्रहण न लगा दे।

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फुर्र हुई परियों की कहानियां   

एक तरफ़ चाइल्ड ओबेसिटी के आंकड़े बढ़ रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ धूप में न निकलने के कारण विटामिन डी की कमी अपने पांव पसार रही है। एक ओर नीली स्क्रीन पर टिकी आंखें मोटा चश्मा ढोने को मजबूर हैं, तो दूसरी ओर एडल्ट स्टफ़ का आदी दिमाग़ वक़्त से पहले परिपक्व हो चला है और फिर ये गैजेट्स हैं ही इतने मज़ेदार कि पढ़ाई का वक़्त ही नहीं छीन रहे बल्कि सपनों में, कल्पनाओं में, परियों की कहानियों में खो जानेवाली मासूम नींद को भी छीने बैठे हैं।

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फ़ोमो यानी ‘फ़ीयर ऑफ़ मिसिंग आउट’. यह एक मनोवैज्ञानिक टर्म है। जिसका मतलब है बच्चों और बड़ों का इस डर से इंटरनेट और गैजेट्स से लगातार चिपके रहना कि कहीं उनकी पकड़ से कुछ छूट न जाए। ©Shutterstock.

फोमो ने छीन ली रचनात्‍मकता

फ़ोमो यानी ‘फ़ीयर ऑफ़ मिसिंग आउट’. यह एक मनोवैज्ञानिक टर्म है। जिसका मतलब है बच्चों और बड़ों का इस डर से इंटरनेट और गैजेट्स से लगातार चिपके रहना कि कहीं उनकी पकड़ से कुछ छूट न जाए। कि कहीं कुछ छूटने से वे आउट डेटेड न हो जाएं… फिर चाहे यह ‘कुछ’ कुछ भी क्यों न हो। कोई ख़बर, कोई गैजेट, कोई वेबसाइट, कोई ऐप, कोई गेम कुछ भी उनकी पकड़ से क्यों छूटे? फ़ोमो के इस मनोवैज्ञानिक दौर में सबसे ज्‍यादा खतरा रचनात्‍मकता पर है। इससे समय बचे तो लोग कुछ सोचें। उनके पास समय की भयंकर किल्‍लत हो गई है। जिससे रचनात्‍म्‍कता और नए आइडिया आ ही नहीं रहे। बहुत हद तक लोग कुछ भी सोचने के लिए मोबाइल पर ही निर्भर हो गए हैं।

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और भी हैं खतरे

गैजेट्स की भरमार लॉन्ग-टर्म में बच्चों के लिए नुक़सानदेह साबित हो रही है, कुछ हद तक इस बात को समझने वाले पैरेंट्स भी बच्चों को गैजेट्स थमा रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कम से कम उनके बच्चे एंगेज तो हैं। कम से कम वे बाहर प्रदूषण में बीमार होने के बजाय भीतर बैठे-बैठे कुछ नया तो सीख रहे हैं। लेकिन सावधान! आपकी यह सोच आपके बच्चे को गैजेट एडिक्शन की ओर ले जा सकती है।

क्‍या कहता है शोध

एक शोध के मुताबिक़ इन दिनों गैजेट्स के बदते चलन के कारण किशोर उम्र के बच्चे गैजेट्स को लेकर इन्फ़ीरियाऑरिटी कॉम्प्लेक्स के शिकार हो रहे हैं। आईपैड, लैपटॉप, मोबाइल आदि गैजेट्स में चिपके रहने वाले इन बच्चों में न केवल मोटापे की समस्या बढ़ रही है, बल्कि वे तमाम दूसरी शारीरिक-मानसिक समस्याओं से ग्रस्त हो रहे है।

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ख़ासतौर से 14-19 वर्ष उम्र वर्ग के किशोर वीडियो गेमिंग, मोबाइल टेक्स्टिंग, सोशल नेटवर्किंग साइट तथा पोर्नोग्राफ़ी की लत से प्रभावित हैं और उनमें व्यग्रता, उत्कंठा, अवसाद, आत्मकेंद्रितता की प्रवृत्ति देखने को मिल रही हैं। ©Shutterstock.

रचनात्‍मक उम्र का संकट

ख़ासतौर से 14-19 वर्ष उम्र वर्ग के किशोर वीडियो गेमिंग, मोबाइल टेक्स्टिंग, सोशल नेटवर्किंग साइट तथा पोर्नोग्राफ़ी की लत से प्रभावित हैं और उनमें व्यग्रता, उत्कंठा, अवसाद, आत्मकेंद्रितता की प्रवृत्ति देखने को मिल रही हैं। इन दिनों कार्टून और चाइल्ड स्टफ़ के लेबल तले एडल्ट स्टफ़ मौजूद है, जो लड़कियों को प्रिंसेज सिंड्रोम और लड़कों को ही-मैन सिंड्रोम की ओर धकेल रहे हैं। बच्चों में आक्रामकता बढ़ रही है।

नींद भी हो रही है गायब

चिकित्सकों का कहना है कि बच्चों के लिए लगभग आठ घंटे की नींद ज़रूरी होती है, लेकिन गैजेट्स के आदी आज के बच्चे बमुश्क़िल पांच से छह घंटे ही सो रहे हैं। देर रात तक चैट करना उनकी आदत में शुमार है। गैजेट्स उनके लिए टाइम किलर साबित हो रहे हैं। जो समय उन्हें पढ़ने-लिखने में देना चाहिए, वह स्मार्टफ़ोन पर फ़ेसबुक और व्हॉट्सऐप में बीत रहा है। यह स्थिति समाज के लिए चिंता का विषय है। इंटरनेट, स्मार्टफ़ोन और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट बेशक ज़रूरी हैं, लेकिन उनके अविवेकपूर्ण इस्तेमाल से पैदा होनेवाले दुष्प्रभाव पूरे समाज को अपने पंजों में जकड़ रहे हैं।

Published : April 20, 2019 5:46 pm | Updated:April 20, 2019 5:50 pm
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